Saturday, August 18, 2012

कविता - पूर्वोत्तर हिंसा और राजनीति


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अशांत है उत्तरपूर्व आज, उनका जीवन अनिश्चितता में,
अपने जन को भय जकड़े
परदेशी करे है तांडव, लिप्त हिंसक लीला में।
विरोधाभास तो देखो,
है अपना देश, धरती अपनी,
पर जन अपने रहते, अब शिविरों में।
रक्षा उनकी अब करे कौन, शासक हैं वोटों की क्रीड़ा में।

परदेशियों का धर्म दिखा, राष्ट्र की विविधता पर सेंध किया।
अप्रवासन के मुद्दे पर, सांप्रदायिक लबादा डाल दिया।
चिंगारी थी एक क्षेत्र की, सारे राष्ट्र में धधका दिया।
सियासी व्यंग किया राष्ट्र पर, सिआसी अब आतंक हुआ।

जातीय हिंसा अब भड़क गई, वो कहते है, हम नज़र बनाये हैं।
जलते मकान, कटते हैं लोग, वो कहते है, स्थिति नियंत्रण में है।
आंतरिक पलायन है वृद्धि पर, वो कहते है, संयम बनाये रखें।
जो पूछो क्या करते हैं आप, तो हर विषय पर राजनीतिक मंत्रणा में हैं।।

--- भाग-१ समाप्त --- 

विद्वेष की अग्नि चौंध रही, सियासी रोटी सेंकते तुम।
मासूमों का रक्त बहा, राजनीतिक दाँव फेंकते तुम।
बिखरे मानव शवों से, अपने सिंघासन को जोड़ते तुम।
इस मायूसी के परिवेश में, अपने कर्म-धर्म को भूल के, अपनी आत्मा को चूर के,
किस सियासी उधेड़-बून में लगे हो तुम।।

किस तंत्र से करें गुहार, हो सत्ता प्रमुख और मूक हो तुम,
गाँधी के तीन बंदरों का, संज्ञान तो है पर अर्थ है गुम,
देखो ना सत्य, न सुनो, न बोलो, हो किस अभिमान में तुम,
कौन सा गठबंधन धर्म निभाते, कहती जनता अकर्मण्य हो तुम।

शर्मसार ना करो राष्ट्र को, सत्ता के शीर्ष पर बैठे हो तुम,
शर्मसार ना हो जौहर उनका, जिस समुदाय को शीर्ष पे पहने हो तुम,
ना रहो तुम इतने मूक असहाय, करोड़ों के सरदार हो तुम,
ये राष्ट्र तुम्हारे साथ है, सत्य, सबल हो, शान्ति का आवाहन करो तो तुम।



--- समाप्त ---

कवि-
विवेक विक्रम

Monday, August 13, 2012

कविता - मैंने मिटा दिया है|


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वर्षों से देखा नहीं तुमको,
न की बात,
न किया याद।
सोचा था मिटा दूंगा,
हर याद,
हर कोमलता को,
जो तुमसे जुड़ी है।
उधेड़ दूँगा हर सम्बद्ध चेतना, जो मन में सिल गई है।
खुरच दूँगा उन चिन्हों को,
तुम्हारी मुस्कान ने जो, इस हृदय पर रेखांकित कीं है।


हर लेख, हर कविता,
हर उस अंक को मिटा दिया।
था उल्लेख जिनमें तुम्हारा।
राख कर दिए वो सब पत्र, हर वो वस्तु,
जिनसे भूले से भी न लौटे सन्दर्भ तुम्हारा।


छोड़नी थी वो राह, जहाँ यादें बसी थीं तुम्हारी,
और छोड़ते छोड़ते पूरा शहर छूट गया।
कुछ मीटरों का साथ था हमारा,
पर उस समय में,
तुम्हें याद करते-करते ,
गलियों से गुज़रते,
उफ़ ये क्या किया!
पूरे शहर को तुम्हारे प्रतिबिंब से जोड़ दिया।।
मिलते तो थे हम कुछ पलों के लिए ही,
पर उन पलों को पाने की बेसब्री को,
हमने शहर की हर गलियों, रिक्शों, ऑटों और इमारतों को बतला दिया।।


--- भाग-१ समाप्त --- 

कहते हैं लोग -
"तू अब इंसान नहीं रह गया है।
मन में कोई भाव नहीं, मानवी गुण से शुष्क हो गया है।
हाड़ माँस का शरीर तो है ,
पर मानवी चेतनाओं से रिक्त, पाषाण क्यों बन गया है?"


कैसे बतलाएं-
लगाव था कितना गहरा,
हम स्वयं नहीं जान पाए।
अब रगड़ रहे है स्मृतियों को उनकी,
भले अपना ही अनिष्ट क्यूं ना हो जाए।

निर्विकल्प थे हम,
कदम बढ़ गए इस ओर,
चाहें भी तो उस राह पर लौट कर कैसे जायेंगे।
बीत गया है समय भी इतना,
जो कहीं लौटे भी तो,
सब बिखरा और खोया हुआ ही पाएंगे।


अब अपनी नियति, इस राह पर चलते रहना है।
मिट के मिटाना ही है मेरा भविष्य,
पञ्च तत्वों में मिल कर ही,
इस मोह से विच्छेद होना है।


अपनी समाधि की पटिया बनवा ली है मैंने,
और लिखवाया है कि,
"मैंने मिटा दिया है"।
स्वयं को या उनकी यादों को,
इसका विश्लेषण अब करे कौन,
मेरे ईश्वर से पूछो,
शायद उसी को पता है।।


--- समाप्त ---

कवि-
विवेक विक्रम