Saturday, June 16, 2012

कविता - बरसाती भीगी स्मृतियाँ



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आज बालकनी पर खड़ा,
गर्म पानी की चुस्की लेता हुआ,
देखता हूँ,
बरसात हो रही है।
कुछ देर से आई इस बार,
पर चलो आई तो सही।
तो सोचा,
क्यों ना कुछ देर यहीं रुकूँ,
और शीतलता भरूँ,
अपने गर्मी से तप्त और विचलित मन में।
धुआँ और प्रदूषित हवा तो रोज़ ही भोगता हूँ,
आज प्रकृति की स्वछता का आनंद भी ले लूँ।।

यूँ ही खड़ा आँखें दौड़ाता हूँ,
तो देखता हूँ, इस बारिश में,
मुख्य मार्ग पर जाती गाड़ियों का चलना।
लोगों का रुक रुक कर यहाँ वहाँ दुबकना।
कुछ लोगों का कूद कूद, बहते सड़क के पानी से बचना।
कुछ लोगों का छाता नचाना और छाते को बताना,
की कौन सा अंग भीगे और कौन सा है उसे बचाना।
कुछ का बार बार उम्मीद से आकाश ताकना।
कुछ लोगों का उकता कर, बस बारिश में ही निकल पड़ना।

मैं खुश हूँ, कि घर पर हूँ,
रास्ते में होता,
तो इन्हीं में से कोई पात्र जीना पड़ता।
मैं कहूंगा कि आज का दिन अच्छा है,
क्यूँकि आज तो मैं हर पात्र का दर्शक हूँ

--- भाग-१ समाप्त --- 


फिर ध्यान गया कि -
अरे! ये कैसी आनंदित स्वर गूँज रहे हैं?
तब देखता हूँ,
हमारी सड़क पर मजदूरों के बच्चे खेलते हैं।
रिमझिम गिरते पानी में किलकारियाँ भर रहे हैं।
नंगे बदन, चड्ढी पहने,
इस प्रकृति प्रदित शीतलता को गृहण कर रहे हैं।
इस बारिश में
झूमते खिलखिलाते खुद तो वो मगन हैं ही,
पर कुछ दूरी से ताकते,
अपने अस्थाई घरों से बीच बीच में झाँकते,
उनके परिजन भी हर्षित हो रहे हैं।

इस दर्शय से
मेरा मन अनायास ही चौकड़ी भरने लगा।
बड़े वेग से लड़प्पन की स्मृतियों में लौटने लगा।
बचपन की वो अटखेलियों को ख़ोज खोज,
फिर उनको कल्पनाओं में जीने लगा है।
बारिश में वो छत पर धमा चौकड़ी करना,
दीदियों पे ला ला के पानी छिड़कना,
औ फिर-
पीछा करवाते हुये उन्हें बारिश में ले आना।
छींकते हुये फिर पोछना तौलिये से,
गर्म दूध पीना,
और साथ में माँ की डांटा खाना।

क्या सुखद पल थे वो,
ऐसे स्मरणों से खड़े खड़े मग्न हो गया मैं।
बचपन की भीगी स्मृतियों में,
गहरे गोता लगाने लगा मैं।
गीली स्मृतियों की सोच भर से,
उष्मा से भर गया मैं।


--- भाग-२ समाप्त ---


वो अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ,
कागज़ की नाव बनाना।
फिर उनको नाली के पानी में दौड़ लगवाना।
और फिर देखना उस नाव को,
पानी के वेग में डोलना,
बहाव से जूझना,
कागज़ का पानी सोकना।
संपर्क जो पानी का नाव के तल से था,
उसका ऊपर बढ़ना,
पहले नाव को डुबोना,
औ फिर उसे कूड़े की तरह बहा ले जाना।।

उस तेज़ नाली के बहाव में हम अक्सर ये सोचते थे ,
की बरसात में नदी का पानी कितनी तेज़ बहता होगा?
और फिर ये बोल कर की
"समुद्र बहुत बड़ा होता है तो उसका पानी नदी से भी तेज़ बहता है"
दोस्तों में अपने आपको काबिल सिद्ध कर देना।

सड़क के खड्डों में कूद कूद कर,
चलने वालों को परेशान करना।
कोई पीटने आये,
तो गलियों में भागना और गायब हो जाना।
किसी पानी के भराव पर जा खड़े होना,
और तेज़ निकली गाड़ी से जब उछालता पानी,
तो उससे बचना,
और बचते-बचते उसी में भीग जाना।
यदि किसी बड़े ने देखा,
तो उस गाडी वाले पर झूठमूठ का गुस्सा दिखाना-
"कि धीरे नहीं चला सकते है क्या?"
पर मन ही मन अपनी उपलब्धी पर खुश होना।

क्या दिन थे वो भी,
मौज के, मस्ती के,
ढलती शाम तक घर के अन्दर आ जाना
साफ़ होना, खाना पीना,
और बहार टिपटिपाते पानी को देख देख खुश होते रहना,
और फिर इतने उधम से थक कर जल्दी सोने जाना।
और सोते सोते यही मनाना, की
"हे इन्द्र देव ऐसे ही बरसते रहो रात भर
कल स्कूल की छुट्टी करवा के ही दम लेना"।


--- भाग-३ समाप्त ---


एकाएक मोटर साइकिलें निकलने लगीं,
हमारी सड़क से।
और मेरा ख्यालों का क्रम टूट गया।
देखा बारिश रुक गई है।
थामी थी जो ट्रैफ़िक फिर उमड़ पड़ी  है।
मुख्य मार्ग जाम हो गया है,
तो हमारी सड़क अब लोगों का ट्रैफ़िक से बचने का सहारा बन गई है।
स्पष्ट है बच्चे सुरक्षा की दृष्टी से अपने घर लौट गए हैं।

और यहाँ हमारा गर्म पानी तो कबका ख़त्म हो गया है।
अब इस शोर से तो,
 स्मृतियों की उष्मा भी जाती रही है।
प्राकृतिक शीतलता लेते लेते, अब ठण्ड लगने लगी है
हमें लगता है,
 अब घर के अन्दर जाने में ही बेहतरी है।


--- समाप्त ---

कवि-
विवेक विक्रम