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कुछ बनने की चाह में,अपनी पहचान की तलाश में,
निकलता है छोड़ के आदमी,
अपना घर|
परिजनों से दूर,
नाते रिश्तों से दूर,
निकला है वो एक तलाश में|
तलाश उस ज़मीन की, जहाँ रखेगा वो नींव,
अपने घर की|
तलाश उस द्रव्य की, प्राप्त होंगे जिनसे संसाधन,
जीवन सुगमता से जीने के|
तलाश उस सामाजिक अभिज्ञान की, बोध कराये जो,
संसार में उसके अस्तित्व का|
प्रण है ये उसका,
कि एक दिन,
जियेगा वो,
कि एक दिन,
जियेगा वो,
रसोस्वाद न किया जिन सुखद क्षणों का,
स्वयं को वापस करेगा वो|
स्वयं को वापस करेगा वो|
अछूते होते रहे जो रिश्ते,
जो बंधन,
जो बंधन,
उनमें प्रेम की अग्नि उद्वेलित करेगा वो|
उस दिन,
जब करके पूरे सपने, सफल होगा वो।
जब करके पूरे सपने, सफल होगा वो।
हर नाते को उपेक्षित करने के आक्षेप का,
पश्चाताप करेगा वो|
पश्चाताप करेगा वो|
विजय और समृधि के शिखर पर हो कर खड़ा,
बस जी रहे से उन अपनों को लगाएगा गले वो|
तब उसके दर्श को तरसते मात पिता को,
जीवन के हर आनंद से अभिभूत करेगा वो||
---भाग-१ समाप्त---
लालसा है कितनी,
कि हो जाये सब अविलम्ब,
कुछ क्षणों, दिनों या महीनों में।
कुछ क्षणों, दिनों या महीनों में।
औ फिर वो जी ले अपने प्रण को|
औ फिर सिखाये,
अपने उन पिछड़े से गए लोगों को ,
अपने उन पिछड़े से गए लोगों को ,
कौशल,
जीवन को जीने का|
जीवन को जीने का|
जो उसने त्याग से पाया है।
त्याग,
उन बेमानों से बन्धनों और संस्कारों का,
उन बेमानों से बन्धनों और संस्कारों का,
जिनमें वो उलझे पड़े हैं, सब|
त्याग,
कुछ ना देने वाली राष्ट्रीयता का,
कुछ ना देने वाली राष्ट्रीयता का,
जिसको न जाने क्यों ढो रहे हैं ये सब,
बेमतलब|
बेमतलब|
पर न जाने क्यों,
ये हो नहीं पाता है।
जो वो चाहता है करना शीघ्रता से,
तो क्षण का दिन,
दिन का महीना,
दिन का महीना,
और महीना सालों में क्यों परिवर्तित हुआ जाता है?
दो पाटों में बंटा है, शायद वो,
सफलता को पाने का संकल्प तो है, पर खुशी के पलों को जीने की चाहत भी है|
औ विलंब का कारण शायद - यही है|
है दृढ़ निश्चयी वो, हार न वो यूँ मानेगा,
कर अर्जुन सा एकल दिमाग, चिड़िया की आँख को भेदेगा|
तोड़ दी हर एक डोर, जो पीछे खींच के उसको लाती थी,
अवरुद्ध की हर वो राह, जो उसके ध्येय की ओर न जाती थी|
रखता था वैश्विक दृष्टीकोण, हर सीमा को लांघ निकलता था|
अथक परिश्रम करता, हर सुख को प्रतिवादित करता था|
पर बढाती थी अर्थव्यवस्था, सो सपने भी अभियुत्तिथ होते थे,
मानो नदी के छोर थे दोनों, ना आपस में वो मिलते थे!
कितने ही वर्ष बीत गए,
इस दौड़ का अंत न दिखता था।
इस दौड़ का अंत न दिखता था।
विश्लेषण अब कौन करे, हर क्षण वो उलझा रहता था|
ना परिवार का बोध था,
ना था प्रिया का, ना संतानों का,
ना था प्रिया का, ना संतानों का,
था तो बस संकल्प,
अपने लक्ष्य को शीघ्रता से पाने का|
अपने लक्ष्य को शीघ्रता से पाने का|
संकल्प बनी कब हठ,
अब उससे ये कौन कहे,
अब उससे ये कौन कहे,
एकल दिमाग के अर्जुन को, अन्य आयाम अब कहाँ दिखें।
---भाग-२ समाप्त---
पर बड़ा क्रूर है समय, लौट कर,
एक दिन वो भी आता है,
जो मढ़ा सदा अन्य पर, स्वयं का,
एकमात्र विकल्प बन जाता है।
ह्रदय विखंडित हुआ था, उस दिन,
उसके भ्रमावरण का चीर हुआ,
संतति छोड़ चली, राह पर उसकी,
तब उसका चित्त अधीर हुआ|
तब उसका चित्त अधीर हुआ|
भारी मन,
डूबा गया अतीत में,
डूबा गया अतीत में,
अब निर्णयों पे अपने, खीज रहा था।
हर जीवन का क्षण खोया था उसने,
समृधि पर अपनी, भीतर उसके,
कुछ टीस रहा था।
समृधि पर अपनी, भीतर उसके,
कुछ टीस रहा था।
व्याकुलता में लौट आया घर,
अनमना सा उसको देखता था,
निर्जीव ईंट, पत्थर का ये ढाँचा भी क्या,
मुँह उससे फेर रहा था?
निर्जीव ईंट, पत्थर का ये ढाँचा भी क्या,
मुँह उससे फेर रहा था?
बहुत समय बीत चुका था,
उत्तरार्ध के मध्य में खड़ा है वो।
प्रेम कटोरा भरे भावों का,
संश्रय अंकुर की इच्छा में,
अनदेखे शुष्क नातों में,
स्वीकृति अपनी तलाशता है।
जीर्ण माता पिता की स्मृति में, उपस्तिथी को अपनी बचा रहा है।
पहचान तलाशता गया था बरसों पहले|
उत्साहित, छोड़ के,
इन रिश्ते, घर, अपनों को।
लौटा है समृधि, पर भ्रमित, म्लान प्राणी सा,
है तलाशता अपनों के कुटुंब में
स्वयं को।।
---समाप्त---
उत्तरार्ध के मध्य में खड़ा है वो।
प्रेम कटोरा भरे भावों का,
संश्रय अंकुर की इच्छा में,
अनदेखे शुष्क नातों में,
स्वीकृति अपनी तलाशता है।
जीर्ण माता पिता की स्मृति में, उपस्तिथी को अपनी बचा रहा है।
पहचान तलाशता गया था बरसों पहले|
उत्साहित, छोड़ के,
इन रिश्ते, घर, अपनों को।
लौटा है समृधि, पर भ्रमित, म्लान प्राणी सा,
है तलाशता अपनों के कुटुंब में
स्वयं को।।
---समाप्त---
कवि-
विवेक विक्रम
beautiful one...:) itna acha kab se likhne lage tum..!
ReplyDeleteशुक्रिया! :-)
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