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वर्षों से देखा नहीं तुमको,
न की बात,
न किया याद।
सोचा था मिटा दूंगा,
हर याद,
हर कोमलता को,
जो तुमसे जुड़ी है।
उधेड़ दूँगा हर सम्बद्ध चेतना, जो मन में सिल गई है।
खुरच दूँगा उन चिन्हों को,
तुम्हारी मुस्कान ने जो, इस हृदय पर रेखांकित कीं है।
हर लेख, हर कविता,
हर उस अंक को मिटा दिया।
था उल्लेख जिनमें तुम्हारा।
राख कर दिए वो सब पत्र, हर वो वस्तु,
जिनसे भूले से भी न लौटे सन्दर्भ तुम्हारा।
छोड़नी थी वो राह, जहाँ यादें बसी थीं तुम्हारी,
और छोड़ते छोड़ते पूरा शहर छूट गया।
कुछ मीटरों का साथ था हमारा,
पर उस समय में,
तुम्हें याद करते-करते ,
गलियों से गुज़रते,
उफ़ ये क्या किया!
पूरे शहर को तुम्हारे प्रतिबिंब से जोड़ दिया।।
मिलते तो थे हम कुछ पलों के लिए ही,
पर उन पलों को पाने की बेसब्री को,
हमने शहर की हर गलियों, रिक्शों, ऑटों और इमारतों को बतला दिया।।
--- भाग-१ समाप्त ---
कहते हैं लोग -
"तू अब इंसान नहीं रह गया है।
मन में कोई भाव नहीं, मानवी गुण से शुष्क हो गया है।
हाड़ माँस का शरीर तो है ,
पर मानवी चेतनाओं से रिक्त, पाषाण क्यों बन गया है?"
कैसे बतलाएं-
लगाव था कितना गहरा,
हम स्वयं नहीं जान पाए।
अब रगड़ रहे है स्मृतियों को उनकी,
भले अपना ही अनिष्ट क्यूं ना हो जाए।
निर्विकल्प थे हम,
कदम बढ़ गए इस ओर,
चाहें भी तो उस राह पर लौट कर कैसे जायेंगे।
बीत गया है समय भी इतना,
जो कहीं लौटे भी तो,
सब बिखरा और खोया हुआ ही पाएंगे।
अब अपनी नियति, इस राह पर चलते रहना है।
मिट के मिटाना ही है मेरा भविष्य,
पञ्च तत्वों में मिल कर ही,
इस मोह से विच्छेद होना है।
अपनी समाधि की पटिया बनवा ली है मैंने,
और लिखवाया है कि,
"मैंने मिटा दिया है"।
स्वयं को या उनकी यादों को,
इसका विश्लेषण अब करे कौन,
मेरे ईश्वर से पूछो,
शायद उसी को पता है।।
--- समाप्त ---
न की बात,
न किया याद।
सोचा था मिटा दूंगा,
हर याद,
हर कोमलता को,
जो तुमसे जुड़ी है।
उधेड़ दूँगा हर सम्बद्ध चेतना, जो मन में सिल गई है।
खुरच दूँगा उन चिन्हों को,
तुम्हारी मुस्कान ने जो, इस हृदय पर रेखांकित कीं है।
हर लेख, हर कविता,
हर उस अंक को मिटा दिया।
था उल्लेख जिनमें तुम्हारा।
राख कर दिए वो सब पत्र, हर वो वस्तु,
जिनसे भूले से भी न लौटे सन्दर्भ तुम्हारा।
छोड़नी थी वो राह, जहाँ यादें बसी थीं तुम्हारी,
और छोड़ते छोड़ते पूरा शहर छूट गया।
कुछ मीटरों का साथ था हमारा,
पर उस समय में,
तुम्हें याद करते-करते ,
गलियों से गुज़रते,
उफ़ ये क्या किया!
पूरे शहर को तुम्हारे प्रतिबिंब से जोड़ दिया।।
मिलते तो थे हम कुछ पलों के लिए ही,
पर उन पलों को पाने की बेसब्री को,
हमने शहर की हर गलियों, रिक्शों, ऑटों और इमारतों को बतला दिया।।
--- भाग-१ समाप्त ---
कहते हैं लोग -
"तू अब इंसान नहीं रह गया है।
मन में कोई भाव नहीं, मानवी गुण से शुष्क हो गया है।
हाड़ माँस का शरीर तो है ,
पर मानवी चेतनाओं से रिक्त, पाषाण क्यों बन गया है?"
कैसे बतलाएं-
लगाव था कितना गहरा,
हम स्वयं नहीं जान पाए।
अब रगड़ रहे है स्मृतियों को उनकी,
भले अपना ही अनिष्ट क्यूं ना हो जाए।
निर्विकल्प थे हम,
कदम बढ़ गए इस ओर,
चाहें भी तो उस राह पर लौट कर कैसे जायेंगे।
बीत गया है समय भी इतना,
जो कहीं लौटे भी तो,
सब बिखरा और खोया हुआ ही पाएंगे।
अब अपनी नियति, इस राह पर चलते रहना है।
मिट के मिटाना ही है मेरा भविष्य,
पञ्च तत्वों में मिल कर ही,
इस मोह से विच्छेद होना है।
अपनी समाधि की पटिया बनवा ली है मैंने,
और लिखवाया है कि,
"मैंने मिटा दिया है"।
स्वयं को या उनकी यादों को,
इसका विश्लेषण अब करे कौन,
मेरे ईश्वर से पूछो,
शायद उसी को पता है।।
--- समाप्त ---
कवि-
विवेक विक्रम
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