Monday, August 16, 2010

६४वाँ स्वतंत्रता वर्ष: क्या खोया क्या पाया हमने!!

भारत का चौसठावाँ स्वतंत्रता वर्ष चल रहा है। बीते वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया और खोया भी। पर हमने पाया कुछ ऐसा की विश्वपटल पर भारत का नक्शा पहचाना जाने लगा, भारत इक्कीसवीं सदी की शक्ति के रूप में उभरने लगा, भारतीयों को गंवार से अधिक भी समझा जाने लगा और इसी के समकक्ष खोया भी बहुत कुछ बहुमूल्य, परंतु उस खोने का किसी को संज्ञान नहीं और यदि है भी तो अघोषित है,मौन है। इस पाने की प्रसन्नता में जो आँखें खोले बैठे भी थे वो पुरानी पीठी के धकियानूसी लोगों के रूप में स्थापित कर दिये गये हैं। अब वो अगर बोलें भी तो लोग उनको कहते हैं “बावरे हैं”, और ध्यान नहीं देते; उनकी चेतावनी को अनदेखा करते है।
मैं कोई विकास अधिकारी नहीं हूँ, परन्तु अपने देश के प्रति संवदनशील अवश्य हूँ और आँखें खुली रखता हूँ, तो थोङा बहुत देश के हालातों से मैं भी परिचित हूँ। वैसे ये बात और है कि आज के विकास अधिकारी, किसी भी विभाग का ले लीजिये, अपने विभाग के विषय में ही जानकारी नहीं दे सकता है तो देश की तो बात बहुत दूर की है। ये बात अपने आप में एक और मुद्दा है, इसलिये इसको फिलहाल यहीं छोङते हैं।

मेरे समक्ष देश की जो तस्वीर उभर के आती है, वह मेरे गर्व भरा विचलन देने वाली है। बङा ही अजीब सा भाव है। नहीं?? अब उस तस्वीर को मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, तनिक गौर करियेगा।
यदि भारत की आज़ादी के प्रारंभ की बात करें तो उस समय हमारे राजनेताओं की प्राथमिक्ता यह थी भारतियों को रोटी, कपङा और मकान उपलब्ध हो। हमारे बङे बङे नेता विदेशी दौरों पर जाते थे अनुदान की आशा से। रूस, अमेरिका और यूरोप के कुछ एक बङे देश। उस समय हमारा देश याचक था और याचक की तरह ही उसको व्यवहार मिलता था। और याचक के प्रति तो दो ही आचरण होते है, दया और फटकार। ये मामला अलग है कि अंतरराष्ट्रीय मानको के आधार पर हमारी करीब ४०% जनता अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है।
वैसे भारत ने इक्कीसवीं सदी में जब प्रवेश किय वह आत्म निर्भर तो हो ही चुका था और उसने खुली अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाते हुये अपने द्वार भी विदेशी कम्पनियों के लिये खोल दिये थे। और इस सदी में, भारत विश्व की एक महत्तवपूर्ण शक्ति है यह तथ्य स्थापित हो चुका है। भारत की प्रसिद्धी तकनीकी, सूचना प्रौद्योगिकी, दूरसंचार, अंतरिक्ष अनुसंधान, परमाणु अनुसंधान, सेवा, दवाओं, इत्यादि क्षेत्र में होने लगी। भारतीय शेयर बाज़ार नई ऊचाईयों को छूने को अग्रसर हैं, सकर घरेलू उत्पात भी उन्नतोंन्मुख है, नये विचारों से लैस उद्यमी, विकासोन्मुख व्यक्तित्व और उनकी कंपनियाँ बाज़ार को नये आयाम दे रहीं है। भारत की अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भी पैठ प्रसंशनीय है। भारतीय प्रतिनिधित्व विश्व पर प्रखर हो चला है। आज के भारत की शौर्य गाथा हर क्षेत्र में है।
यदि उपरोक्त प्रविष्ट उपल्ब्धियों पर द्रष्टि डाले तो आपको यही अनुभूत होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्रचंड हो उन्नति मार्ग पर अग्रसर है।
तो फिर पीङा क्यों और किसे है?
जब इतनी प्रगति है तो यदि कुछ गवांया भी तो इस सब का भुगतान क्यूँ नहीं समझ सकते हम?
जब नये विचार आते हैं तो पुरानों को जाना पङता है, फिर ये कोलाहल क्यूँ?
ऐसा तो नहीं हो सकता कि हमें सिर्फ मिलता ही रहे- यदि किसी कक्ष में कुछ नया लाना है तो पुरानी वस्तुओं से निव्रत्ति तो लेनी ही है। यह महत्वपूर्ण भी है और स्वभाविक भी। नहीं क्या?

यह सारे प्रश्न अपनी स्थान पर सही हैं। परन्तु कुछ अन्य बिन्दू भी हैं जिन पर विचारना नितांत आवश्यक है। अब तनिक यूँ सोचिये-
इस दौर को सामजिक विक्रति नही कहें तो और क्या कहें कि यहाँ पूछ सिर्फ धन की होने लगी है और हमारा समाज उसके उपार्जन के स्रोत के प्रति उदासी है।
हमने अपने चरित्र प्रधान समाज को धनोन्मुख बना दिया और बिना विरोध सहर्ष स्वीकार भी लिया।
हर सरकारी या गैर सरकारी विभाग में कर्मचारी अपने निजी लाभ के लिये गलत करने से नहीं हिचकता; उसे कोई डर नहीं है। डर कानून का, जिसे वो यह सोच के नहीं घबराता कि यदि पकङे भी गये तो लचर कानूनी प्रक्रिया के चलते सज़ा होने की संभावना तो कम ही है, और अमूमन जो आयोग बैठाये भी जायेंगे जाँच के लिये वो भी लेदे के आख्या (रिपोर्ट) अशक्त कर ही देंगे। और दूसरा डर समाज का, जो पहले भ्रष्ट लोगों को बहिष्क्रित कर देता था। अपने ही समाज में पराया हो जान एक बहुत बङा मानसिक अवरोध था, पर ये अब नहीं रहा। और समाज का यह लचीला रुख ही समाजिक ढाँचा में भ्रष्टाचार का पोश्क है।
और सबसे बङा कष्ट यही है!!
अपने विद्यालय (स्कूल) की कई अच्छी सीख़ों में से एक उद्धरण करना चाहुँगा। एक टीचर थे हमारे और वो अक्सर एक कहावत कहते थे
"If Money is lost nothing is lost, if Health is lost something is lost and if Character is lost, Everything is lost"
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सार में कहें तो -
धन तुच्छ है, स्वास्थय् मूल्यवान है और चरित्र बहुमूल्य।
समाज इसके विपरीत हो गया है। क्या इसको आप पीङा न कहेंगे। यदि वित्तीय द्रष्टि से देखेंगे तो उत्तर अवश्य ना ही होगा।

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अब ये जानने की कोशिश करते है कि गाँधी के सूती भारत, भगत के बलिदानी भारत, बोस के द्रढ़ भारत, राम के पौरुषी भारत, कृष्ण के निर्मोही और कर्मशील भारत, चाण्क्य के नीतिकार भारत और विवेकानंद के ज्ञानी भारत को भष्ट, कैसे और किसने बनाया?
समाज की यह जो स्थिती है उसको इस अवस्था में लाने के लिये हम सब उत्तरदायी है और विशेष तौर पर हमारे रहनुमा, हमारे नेता। यह प्रक्रिया कई दशकों से चलती रही है और आज इस अवस्था तक आई है। वैसे प्रक्रिया अभी जारी है, अभी और बहुत कुछ देखना है।
भारत जब ब्रतानी साम्राज्य के अधीन था, तब ब्रतानियों ने एक सुनियोजित ढ़ंग से भारतियों को इस मानसिक्ता की ओर डकेला कि हमारी जो रीत व परम्परायें है वह असभ्य हैं। इस सोच ने उन लोगों को तो प्रभावित नहीं किया जो उस समय बुद्धिजीवी थे, परन्तु इस सोच ने अबोध जनता को इस मंथन में अवश्य डाला कि - क्या हम वास्तव में असभ्य हैं? समाज में उनको सम्मान दिया जाने लगा जो लोग स्वयं को ब्रतानी सोच में ढालने लगे (सम्मान के स्थान पर आडम्बर कहें तो अधिक उपयुक्त होगा)। फिर भारत का वो बुद्धिजीवी समाज नेत्रत्व में आ गया जिसको ज्ञान था सही व गलत का। उन्होंने समाज को यह ज्ञात कराया कि हमें स्वयं पर और अपनी संस्कृति पर गर्व होना चहिये। भारतीय समाज को इससे बल मिला। पर कहीं न कहीं ऐसी भावनाओं की जङें दृङ थी कि यदि हमारे किसी भी रीति या संस्कार को ब्रतानी सरकार और उस समय के हुकमरा सही ठहराते तो हमें अधिक गर्व होता था। तो परोक्ष रूप से हम अपने आपको पश्चिम समाज के द्वारा प्रमाणित होने पर अतिगर्वानवित होने लगे। परन्तु उस समय देश की कमान ऐसे व्यक्तियों के हाथ में थी जो अपने भारतीय होने पर और भारतीय सांस्कृतिक विविधता को समझते व समान करते थे और निसंकोच उसका पालन करते थे (खादी का प्रचलन उसी सोच का एक हिस्सा था)। उन्होंने जनता को ऐसे सभी भ्रामक विचार से बचाने का सफल प्रयास किया जो भारतीयों को उनके विचार शक्ति और अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दे।
पर आज़ादी के बाद समय बदला प्रजा को प्रजातंत्र तो मिला पर उसका उपयोग करने का ज्ञान नहीं। भारतीय नेत्रित्व की ये अक्षम्य और जघन्य त्रुटि है, और उनकी अदूर्दर्शिता का एक प्रमाण। प्रजा को प्रजातंत्र का बोध कराये हुये ही उसको उस शक्ति के प्रयोग करने की आज़ादे मिली। नतीजा हुआ जननायकों का चारित्रिक ह्रास। जिन्हें वोट देना था उनको यह नहीं सिखाया गया कि किसे वोट देना चाहिये। वाह्य आडमबरों और शब्द जालों के तानेबाने ने राजनीती में जगह बनाई और प्रगतिशील व नेकनियति से नेत्रित्व करने वाले जनता पर पकङ खो बैठे। आडमबर धन की माँग करता है। इसी लिये आज जब चुनाव आयोग ने २५ लाख राशि घोषित की है (उ.प्र., आ.प्र जैसे बङे राज्यों में), चुनाव प्रत्याशी करोङों में खर्च करते हैं। और जब धन बल इतना महत्वपूर्ण हो गया, तो जो नेकनियति वाले थे, वे भी इस चाल पर चल पङे। बदलते समय की माँग थी, बदलना पङा, अच्छा या बुरा पता नहीं, पर जो नहीं बदले उनको आज रोटियों के लाले पङे हैं, कोई पूछने वाला नहीं। यह धन की पहली मार थी, जब राजनीति में धन सबल हुआ।
राजनीति बुरी मानी जाने लगी। पर समाज को अगला झटका तब मिला जब हमारे देश में हम भाषी मूङ व पिछङे हुये जाने लगे। यह एक और उदाहरण है जहाँ हमारे प्ररंभिक राजनैतिक चूक गये। भारतीय भाषायें दयनीय स्तिथी में है। नौकरी के लिये अंग्रेज़ी ज्ञान सर्वोपरि माना जाने लगा। सरकारी विद्यालय का स्थान निजी स्कूलों ने लिया। जब आप अपनी भाषा से दूर हुये तो संस्कृति भी हाशिये पर आ जाती है। अंग्रेज़ी या कोई और भाषा सीखना गलत नहीं है, गलत है तो अपनी भाषा पर शर्मिन्दा होना। देश को इतना कम था कि फिर आरक्षण ने कसर पूरी कर दी। अब सरकारी विद्यालय या महाविद्यालय में योग्यता नहीं अपितु जाति निर्धारण से प्रवेश मिलने लगे। जो मेधावी प्रवेश न पा सके उनको निजी स्कूलों में जाना ही पङा, जिनकी फीस अधिक थी। पैसे की पहली मार आम आदमी पर यहाँ पङी। जब उसे लगा धन अधिक होना चहिये। सरकारी विद्यालयों में अध्यापक भी योग्यता नहीं अरक्षण से आने लगे। एक तरह से सही ही था, आरक्षित विद्यार्थियों के लिये आरक्षित शिक्षक। अभिभाव ट्यूशन की तरफ भागे। धन की माँग और बढ़ी।
और ऐसे में आया उदारीकरण और खुले बाज़ार की संकल्पना। बाज़ार उत्पादनों से भर गये, टीवी नये चैनलों से, और चैनल विज्ञापनों से। बाज़ारी वैकलपों ने ज़रूरतें बढ़ाईं, संयम को ढकोसला और असमर्थता छुपाने का बहाना बताया गया, इतना ही नहीं भारतियों के बचत वाले स्वभाव का परिहास किया गया। ऐसे समय में हमारे राष्ट्र मे ऐसा कोई भी नायक नहीं था, जो ये कहता कि यह छलावा है इससे बचो।
धन की माँग बढती ही गईं, और समाज उसको पाने की चाह में धनमोन्मुख हो चला। व्यापारियों ने काला बाज़ारी की, नेताओं ने पक्षपात किया और चंदा बटोरा, नौकरी पेशेवालों ने घूस ली, निजीकरण बढ़ा और हर वस्तु के दाम चढ़े। गरीब, मजदूर, किसान जिनके पास बेईमानी के लिये कुछ न था, वे पलायन करने लगे, आत्महत्यायें बढ़ी, कुछ ने शरीर के अंग बेच, कुछ अपराध की ओर बढ़े। इस प्रभाव को सार में कुछ यूँ कहेंगे, भारतीय धनाड्य विश्व धनाड्यों की सूची में शामिल होने लगे, मध्यम वर्ग तनाव से ग्रसित हुआ, और गरीब भुखमरी की ओर बढ़े।

और अब सूचना प्रोद्योगिकी के चलते हमारे कितने ऐसे काम है जिनमें समय बरबाद नहीं होता, पर इतनी बचत के बावजूद हमारे पास अगर कुछ नहीं है तो वो है समय, कि हम बैठें और सोचें, कि आखिर किस ओर जा रहे हैं हम।
जब तक चल रहे हैं चल रहे हैं, इस अंधी दौङ में हम भी निरंतर हिलडुल रहे है।
चूँकि भयभीत हैं स्वयं को टटोलने के विचार से, इसीलिये अब हम स्वयं को भी छल रहे है||

कभी समय मिलने पर उस भारत की तस्वीर देखना जो शहर में नहीं रहता, कोफ्त होगी, इस प्रगति से - जो एक छोर पर हमें अमेरिकी जीवन की ओर ले जा रहा है तो दूसरी छोर पर अफ्रीकी। भारती जीवन कहाँ दम तोङ रहा है?
ह्म्म्म्म्‍ ढूँढो तो जान!!

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